‘पथ के साथी’ में स्मृति का सृजनात्मक उपयोग
ज्ञानेंद्र प्रताप सिंह
शोधार्थी -हिंदी विभाग ,दिल्ली विश्वविद्यालय
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रेखाचित्र
हिन्दी गद्य साहित्य की नवीनतम विधाओं में से एक है, जिसमें
किसी देखे-सुने अनुभव के आधार पर वास्तविक जीवन की चारित्रिक विशेषताओं का
मर्मस्पर्शी चित्रण होता है। जैसाकि नाम से ही स्पष्ट है रेखाचित्र कला का शब्द है
रेखाएँ ही इसमें चित्र अंकन का मुख्य आधार होती हैं।
‘रेखाचित्र’ अंग्रेजी शब्द ‘स्केच’ का पर्याय है, जिसे हिन्दी में शब्दचित्र कहते हैं। जो चित्र रेखाओं
द्वारा खीचें जाते हैं, वे रेखाचित्र कहलाते हैं। चित्रकार स्केच खीचते समय रेखाओं
का सहारा लेता है, रंग उतने आवश्यक नहीं समझे जाते। लेकिन जब साहित्यकार किसी
वस्तु,
व्यक्ति या घटना का चित्र खीचता है,
तब वह शब्दों से काम लेता है। चित्रकार की रेखाओं के स्थल
पर शब्द ही उसके काम आते हैं इस बात को हिन्दी के प्रमुख आलोचक शिवदान सिंह चौहान
ने इस प्रकार स्पष्ट किया है- ‘‘रेखाचित्र पढ़कर किसी वस्तु का चित्र ही हमारे सामने नहीं
खिंच जाता, बल्कि अभिव्यक्ति और चित्रण के पीछे अनासक्तिभाव का उपक्रम किए लेखक की छिपी
सहानुभूति से भी अप्रत्यक्ष रूप से पाठक प्रभावित होता है,
वास्तविकता के उस टुकड़े को उस विराट संदर्भ से हटाकर जैसे आन्तरिक
नेत्र से देखकर वह उसे पूरे तौर पर जान लेता है और उसके संपूर्ण स्वरूप से उसके
आंतरिक संबंधों को पहचान लेता है।’’1 इससे स्पष्ट है कि रेखाचित्र या शब्दचित्र खींचना सरल
कार्य नहीं है।
हिन्दी साहित्य
के इतिहास के ‘‘छायावादोत्तर काल में रेखाचित्र साहित्य के विकास की दिशा
में हंस पत्रिका का ‘रेखाचित्र-विशेषांक’ सर्वप्रथम उल्लेखनीय है, क्योंकि इसमें हिन्दी के अतिरिक्त अन्य भारतीय भाषाओं के
लेखकों के भी रेखाचित्र प्रकाशित किए गए थे। इन विधाओं के हिन्दी लेखकों में
बनारसीदास चतुर्वेदी का स्थान सर्वोच्च है। 'हमारे आराध्य',
‘संस्मरण’,
‘रेखाचित्र’
तथा ‘सेतुबंध’ उनकी अनुपम कृतियाँ हैं। श्री राम शर्मा-कृत ‘प्राणों का सौदा’, ‘जंगल के जीव’ और ‘वे जीते कैसे हैं’ उल्लेखनीय रचनाएँ है। रामवृक्ष बेनीपुरी ने यथार्थ के साथ
कल्पना और भावुकता का समन्वय कर ‘लाल तारा’, ‘माटी की मूरतें’, ‘गेहूँ और गुलाब’ तथा ‘मील के पत्थर’ शीर्षक कृतियाँ लिखी हैं। हिन्दी के रेखाचित्र-साहित्य की
अभिवृद्धि में महादेवी वर्मा का महत्वपूर्ण योगदान है। ‘अतीत के चलचित्र’, ‘स्मति की रेखाएँ’, ‘पथ के साथी’ और ‘स्मारिका’ उनके अन्यतम रेखाचित्र संग्रह है। इनमें नारी हृदय की
आत्मीयता तथा सरलता मिलती है।’’2
महादेवी वर्मा
का प्रथम रेखाचित संग्रह ‘अतीत के चलचित्र’ सन् 1941 ई. में प्रकाशित हुआ। इसके पश्चात् इनके दो रेखाचित्र
संग्रह ‘स्मृति की रेखाएँ’ और ‘पथ के साथी’ (1956 ई. में) प्रकाशित हुआ। ‘अतीत के चलचित्र' में प्रथम बार सफल रेखाचित्र के दर्शन हुए,
कुछ विद्वान इसे ही हिन्दी का प्रथम सफल रेखाचित्र मानते
हैं। इन रेखाचित्रों में स्थान-स्थान पर महादेवी जी के व्यक्तित्व के दर्शन भी
होते हैं। इनके पात्रों में स्वच्छन्द मानवता के उन प्रकाश उज्जवल रूपों के दर्शन
होते हैं जो समाज की सड़ी- गली रूढ़ियों के विरुद्ध निरन्तर संघर्ष करते हुए पाठक की
सहानुभूति तथा स्नेह को पाने में समर्थ होते हैं। महादेवी वर्मा ने अपनी भावनाओं
को शब्दों और रेखाओं, दोनों के माध्यम से अभिव्यक्ति दी है। एक सशक्त कवयित्री,
एक अच्छी निबन्धकार होने के साथ-साथ वे रेखाचित्र अंकन की
कला में प्रवीण थी । साहित्य में इन रेखाचित्र की विशिष्टता का एक और भी कारण है। वह कि इन
रेखाचित्रों के पात्र महादेवी की जीवन कथा को छूने वाले अंग है, जिस सम्बन्ध में डॉ.
नागेन्द्र का मत स्पष्ट है- ‘‘महादेवी के रेखाचित्रों में संवेदनशीलता,
भावुक कल्पना, कविहृदय और कलात्मक अभिव्यक्ति का अभूतपूर्ण उत्कर्ष मिलता
है।’’3
‘पथ के साथी’ में महादेवी वर्मा ने अपने समकालीन साहित्यकारों के जीवन
दर्शन को अपने रेखाचित्र का विषय बनाया है, जिसमें कवीन्द्र रवीन्द्रनाथ ठाकुर,
मैथिलीशरण गुप्त, सुभद्रा कुमारी चौहान, सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’, जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानन्दन पंत तथा सियारामशरण गुप्त जी है। इस संग्रह
के पात्रों का सम्बन्ध समाज के शिक्षित वर्ग से है, परन्तु इनमें से अधिकांश धनाभाव से पीड़ित है, अतः स्वयं
अभावग्रस्त होने के कारण दूसरे का दुःख अनुभव करने में समर्थ है। निराला की जीवनधारा
से सम्बन्धित रेखाचित्र इसका सुन्दर उदाहरण है। लेकिन साहित्यकारों को साहित्य का
विषय बनाना सरल भी है और दुष्कर भी। यह समझने के लिए महादेवी वर्मा की ‘पथ के साथी’ के भूमिका की ये पक्तियाँ स्पष्ट है- ‘‘साहित्यकार की साहित्य-सृष्टि का मूल्यांकन तो अनेक आगत-अनागत
युगों में हो सकता है, परन्तु उसके जीवन की कसौटी उसका अपना युग ही रहेगा।’’4
महादेवी का ‘पथ के साथी’ को पढ़ने से यह स्पष्ट हो जाता है, कि यह मित्र-संवाद ही न
होकर जीवन को प्रभावित करने वाले प्ररेणा-स्त्रोत से युक्त है इससे हमें जीवन जीने
की कला का ज्ञान होता है क्योंकि इसमें व्यक्ति के कृतित्व और व्यक्तित्व का वह
बिंब प्रस्तुत किया गया है, जिसे महादेवी ने अपनी प्रज्ञा की आँखो से देखा। इसके
सम्बन्ध में कृष्णदत्त पालीवाल का यह कथन सार्थक है- ‘‘महादेवी के ये संस्मरण इतने प्रसिद्ध हुए हैं कि अज्ञेय
जैसे रचनाकार को ‘स्मृति लेखा’ की ओर मुड़ना पड़ा।’’5
‘प्रणाम’ शीर्षक से प्रारम्भ होने वाला कवीन्द्र रवीन्द्रबाबू का
चित्र सूक्ष्मतर से सूक्ष्मतर और फिर स्थूलता की ओर अग्रसर होता है । लेखिका
सामान्य कथन के लिए प्राकृतिक दृश्यों का आधार ग्रहण करती हैं और रवीन्द्रनाथ
ठाकुर की विशेषता को सामने लाती है और रवीन्द्र के तीन विभिन्न परिवेशों में देखने
के चित्रण महादेवी जी करती हैं। ‘पथ के साथी’ में कवीन्द्र-रवीन्द्र के बाह्मरूप का शब्दों द्वारा किया
हुआ चित्रण दृष्टव्य है- ‘‘मुख की सौम्यता को घेरे हुए वह रजत आलोक-मण्डल जैसा केश
कलाप। मानो समय ने ज्ञान को अनुभव के उजाले झीने तन्तु में काट कर उससे जीवन का
मुकुट बना दिया है। केशों की उज्ज्वलता के लिए दीप्त दर्पण जैसे माथे पर समानान्तर
रहकर साथ चलने वाली रेखाएँ जैसे लक्ष्य-पथ पर हृदय के विश्राम चिन्ह हो।’’6
महादेवी की सर्जनात्मकता
रवीन्द्रनाथ पर लिखा गया ‘प्रणाम’ में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है जिसमें स्मृति का सजग
अंकन है तथा जिसके सम्बन्ध में कृष्णदत्त पालीवाल लिखते हैं- ‘‘रवींद्रनाथ के महाप्राण पर लिखा गया महादेवी का यह ‘प्रणाम’ स्मरण इतना प्रभावी सर्जनात्मक है कि हिन्दी का गद्य इस
संपन्न सामर्थ्य से फूला नहीं समाता है। पूरा संस्मरण बिंब बहुल भाषा का उज्ज्वल
नीलमणि से निर्मित लोक ही है।’’7
इस संग्रह का दूसरा संस्मरण
मैथिलीशरण गुप्त जी पर है जिनकी ‘अहो’ व ‘कहो’ तुकबन्दी पर मुग्ध महादेवी ने अपनी स्मृति का प्रमाण दिया
है । गुप्त जी के प्रति महादेवी की गहरी आस्था थी, जिसका उल्लेख इन पंक्तियों से
मिलता है- ‘‘मैं गुप्त जी को कब से जानती हूँ, इस सीधे से प्रश्न का मुझसे आज तक कोई सीधा-सा उत्तर नहीं
बन पड़ा। प्रश्न के साथ ही मेरी स्मृति अतीत के एक धूमिल पृष्ठ पर उगुंली रख देती
है जिस पर न वर्ष, न तिथि आदि की रेखाएँ हैं और न परिस्थितियों के रंग। केवल कवि
बनने के प्रयास में बेसुध एक बालिका का छायाचित्र उभर आता है।’’8 इन पक्तियों से महादेवी की स्मृति का स्पष्ट प्रमाण मिलता
है जो उनकी स्मृति सृजन में उपयोगी सिद्ध हुई है।
इसी प्रकार महादेवी जी ने बहन
सुभद्रा कुमारी को उनके कवि रूप में देखने से पूर्व सहज सख्य भाव से अपनी सम्पूर्ण
संवेदनशीलता के साथ अपना लिया था जिस कारण यह रेखाचित्र अत्यंत जीवन्त प्रतीत होता
है- ‘‘एक सातवीं कक्षा की विद्यार्थिनी,
एक पाँचवी कक्षा की विद्यार्थिनी से प्रश्न करती है,
‘क्या तुम कविता लिखती हो?
दूसरी ने सिर हिलाकर ऐसी अस्वीकृति दी जिसमें 'हाँ' और 'नहीं'
तरल होकर एक हो गये थे। प्रश्न करने वाली ने इस स्वीकृति-अस्वीकृति की सन्धि से
खीझ कर कहा, ‘तुम्हारी क्लास की लड़कियाँ तो कहती है कि तुम गणित की कापी तक में कविता लिखती
हो। दिखाओ अपनी कापी और उत्तर की प्रतीक्षा में समय नष्ट न कर कविता लिखने की
अपराधिनी को हाथ पकड़कर खींचती हुई उसके कमरे में डेस्क के पास ले गई। नित्य
व्यवहार में आने वाली गणित की कापी छिपाना सम्भव न था,
अतः उसके साथ अंकों के बीच में अनाधिकार सिकुड़ कर बैठी हुई
तुकबन्दियाँ अनायास पकड़ में आ गई।’’9 इसके बाद का यह चित्रण और मार्मिक है- ‘‘तुमने सबसे क्यों बताया? ‘का सहारा उत्तर था’ हमें भी तो यह सहना पड़ता है। अच्छा हुआ अब दो साथी हो गए।
कितनी स्वाभाविकता है दो बालिकाओं के संवाद में, बाल सुलभ विशेषताएँ उभर गई हैं। इसमें महादेवी वर्मा की
स्मृति उच्च शिखरों को छूती नजर आ रही है।
सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ के रेखाचित्र में महादेवी वर्मा की आत्मा रमी है वे उन्हें
राखीबन्द भाई बनाने से लेकर उनके पारिवारिक, निजी तथा कलात्मक रूपों तक की मर्मोद्घारिनी झाँकी देती
चलती हैं ‘‘उस दिन मैं बिना कुछ सोचे हुए ही भाई निरालाजी से पूँछ बैठी थी।’’
आपके किसी ने राखी नहीं बाँधी... पर अपने प्रश्न के उत्तर
ने मुझे क्षण भर के लिए चौका दिया! ‘कौन बहिन हम ऐसे भुक्खड़ को भाई बनावेगी।’’10 इसी प्रकार जिस दिन मैथिलीशरण गुप्त निराला जी के अतिथि
बने,
उस दृश्य को भुला पाना स्वाभाविक नहीं है- ‘‘बगल में गुप्त जी के बिछौने का बंडल दवाए,
दियासलाई के क्षण-प्रकाश क्षण-अन्धकार में तंग सीढ़ियों का
मार्ग दिखाते हुए निराला जी हमें उस कक्ष में ले गए जो उनकी कठोर साहित्य-साधना का
मूल साक्षी रहा है। आले पर कपड़े की आधी जली बत्ती से भरा,
पर तेल से खाली मिट्टी का दिया मानों अपने नाम की सार्थकता
के लिए जल उठने का प्रयास कर रहा था।’’11 इस संस्मरण में महादेवी के स्मृति की छाप का सर्वोत्कृष्ट
रूप चित्रित हुआ है।
प्रसाद जी का चित्र निराला की
तरह न इतनी आत्मीयता पा सका है और न अपनी विविधता में ही मुखरित हो पाया है, फिर
भी महादेवी वर्मा की स्मृति की छाप इन पंक्ति से चलती है- ‘‘मेरी हँसी देखकर या मुझे भारी भरकम नाम के विपरीत देख
प्रसाद जी ने निश्चय हँसी के साथ कहा- ‘आप तो महादेवी जी जान पड़ती। मैंने भी वैसे ही प्रश्न में
उत्तर दिया- ‘आप ही कहाँ कवि प्रसाद लगते है जो चित्र में बौद्ध भिक्षु जैसे हैं।’’12 यह उदाहरण महादेवी की स्मृति की सर्जनात्मक उपयोग को सिद्ध
करता है।
सुमित्रानन्दन पंत के प्रति
अपनी परिचयशीलता की स्वीकृति के साथ महादेवी वर्मा ने एक मनोरंजक प्रसंग द्वारा
उसके आरम्भ की बात उठाई है। महादेवी वर्मा की ये पक्तियाँ स्पष्ट है- ‘‘जब वे तीसरी कक्षा के बाल-विद्यार्थी थे,
तभी उन्हें अपने गोसाईदत्त नाम की कवित्वहीनता अखरने लगी।
सुमित्रानन्दन जैसा श्रुति-मधुर नाम अपने लिए खोज लेने वाली उनकी असाधारण बुद्धि
ने जीवन और साहित्य के अनेक क्षेत्रों में अपनी सृजनशीलता का परिचय दिया है।’’13
इसी प्रकार सियारामशरण गुप्त
के रेखाचित्र भी है, जो संक्षिप्त होकर भी गहरी छाप छोड़ते हैं- ‘‘कुछ नाटा कद, दुर्बल शरीर और कृश हाथ-पैर, लम्बे उलझे रूखे से बाल, लम्बाई लिए सूखे मुख, ओंठ और विशेष तरल आँखों के साथ भाई शियारामशरण ऐसे लगते हैं
मानो ठेठ भारतीय मिट्टी की बनी पकी कोई मूर्ति हो, जिसकी आँखों पर स्निग्धता का गाढ़ा रंग फेर कर शिल्पी,
शेष अंगों पर फेरना भूल गया है।’’14
महादेवी वर्मा के ‘पथ के साथी’ के सन्दर्भ में यह कथन उल्लेखनीय है- ‘‘जहाँ-जहाँ उनके निरीक्षण में निकट परिचय संवाद और हार्दिकता
है वहाँ वे बहुत सर्जनात्मक वृत्त रचती है। इस दृष्टि से निराला और सुभद्रा कुमारी
चौहान का संस्मरण जितना बेजोड़ है, जयशंकर प्रसाद तथा शियारामशरण गुप्त का उतना ही कमजोर है।’’15
निष्कर्षतः महादेवी वर्मा के ‘पथ के साथी’ ही नहीं उच्च रेखाचित्रों ‘स्मृति की रेखाएँ’ एवं ‘अतीत के चलचित्र’ को देखा जाए तो लगता है कि उनकी कला पर किसी अन्य का प्रभाव
नहीं है। महादेवी की अपनी मौलिक प्रतिभा एवं सृजनशीलता ही इनकी रचनाओं में सर्वत्र
प्रकट होती है। इसी कारण कहीं-कहीं तो महादेवी जी के रेखाचित्र कविता से भी अधिक
हृदय ग्राही बन गए है। ‘पथ के साथी’ के सभी चित्र यथार्थ की कठोर भूमि पर टिके रहकर सृजन की ऊचाईयों का
स्पर्श करने में समर्थ हैं, क्योंकि उनमें भावना, बुद्धि, कल्पना एवं विशिष्ट शैली का अद्भुत समन्वय है, जिससे सिद्ध
होता है कि ‘पथ के साथी’ स्मृति के सर्जनात्मक उपयोग से परिपूर्ण है।
संदर्भ सूची
1. ‘‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’’- हृदयेश मिश्र एवं शिवलोचन पाण्डेय,
पृष्ठ 279, प्रकाशक- भारती भवन, पटना, 2003
2. उपरोक्त, पृष्ठ सं. 279-280
3. ‘‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’’- सं. डॉ. नगेन्द्र, पृष्ठ सं. 581, प्रकाशक-मयूर पेपर बैक्स, दिल्ली, संस्करणः 2012
4. ‘‘पथ के साथी’’- महादेवी वर्मा, पृष्ठ सं. 5, प्रकाशक-लोकभारती पेपर बैक्स, इलाहाबाद, सं. 2011
5. ‘‘नवजागरण और महादेवी वर्मा का रचना-कर्मः स्त्री विमर्श के स्वर’’-
कृष्णदत्त पालीवाल, प्रकाशक-किताब घर, प्रथम सं. 2008, पृष्ठ सं. 305
6. ‘पथ के साथी’- महादेवी वर्मा, पृष्ठ सं. 11
7. ‘‘नवजागरण और महादेवी वर्मा का रचना कर्मः स्त्री विमर्श के स्वर’’-
कृष्णदत्त पालीवाल, पृष्ठ सं. 313
8. ‘पथ के साथी’- महादेवी वर्मा, पृष्ठ सं. 23
9. उपरोक्त, पृष्ठ सं. 39
10. उपरोक्त, पृष्ठ सं. 51
11. उपरोक्त, पृष्ठ सं. 52-53
12. उपरोक्त, पृष्ठ सं. 67
13. उपरोक्त, पृष्ठ सं. 79
14. उपरोक्त, पृष्ठ सं. 85
15.
‘‘लेखिकाओं की दृष्टि में महादेवी वर्मा’’-
सं. चन्द्रा सदायत प्रकाशक- नेशनल बुक ट्रस्ट,
इण्डिया, 2011, पृष्ठ सं. 80
जनकृति [ बहुभाषी अन्तर्राष्ट्रीय मासिक पत्रिका ] में प्रकाशित , ISSN :2454-2725, Impact Factor : GIF 2.0202 VOL.3, Issue 34-35 फरवरी - मार्च अंक 2018
Dhnayavaad sir
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