‘अँधेरे में’ कविता का मूल कथ्य
मुक्तिबोध प्रगतिशील कविता के प्रमुख कवियों में से एक हैं। अन्य प्रगतिशील कवियों से आधारभूत वैचारिक समानता के बावजूद मुक्तिबोध का काव्य भिन्न और अपनी वैयक्तिव विशिष्टता लिए हुए है। पद प्रतिष्ठा और उन्नति की चक्करदार सीढ़ियों पर चढ़ते जाने वाले बुद्धिजीवियों की मानसिक दासता के युग में गजानन माधव मुक्तिबोध एक ललकार के रूप में हिन्दी काव्यजगत में अवतरित हुए। मुक्तिबोध का जीवन आत्मसंघर्ष एवं आर्थिक विपन्नता में कटा। ‘चाँद का मुँह टेढा है’, ‘बह्यराक्षस’, ‘अँधेरे में’ इनकी प्रसिद्ध कविताएँ हैं। जिनमें छायावादी ंलिज-लिजेपन और प्रगतिवादी थोथे नारों और हुल्लड़बाजी के प्रति असहमति प्रकट करते हुए मुक्तिबोध ने शोषण और भेड़चाल का बड़ा सशक्त विरोध अपनी रचनाओं के माध्यम से किया है। इनके द्वारा रचित लम्बी कविता ‘अँधेरे में’ इसका ज्वलन्त प्रमाण है।
‘अँधेरे में’ कविता में जीवन की नग्न सच्चाई का साक्षात्कार करने वाले मुक्तिबोध रूमानी भावनाओं का छायावादी लहजा पकड़ते हुए भी अनुभव की तिक्तता सम्मिश्रित करते चलते हैं। अनुभव वैविध्य के साथ अकेले ही संघर्षशील मनुष्य की चेतना, युगीन विसंगतियाँ तथा भयावह स्थितियाँ मुक्तिबोध की कविता में एकदम नये आकार तथा रूप में प्रस्तुत होती है। फैण्टेसी, मिथक तथा प्रतीकों की निर्मिति उनकी कलात्मक कुशलता है। ‘अँधेरे में’ कविता मुक्तिबोध की सबसे लम्बी तथा सबसे अधिक चर्चित कविता है। ‘अँधेरे में’ में कविता एक स्वप्न-कथा है, एक फैण्टेसी है। यह फैण्टेसी अन्तर्दर्शन की ऐसी प्रक्रिया के रूप में प्रयुक्त हैं जिसमें एक स्तर पर साम्राज्यवादी, पूंजीवादी और फासिस्ट प्रतिष्ठानों की गतिविधियों के रहस्य खुलते हैं और दूसरे स्तर पर दिक् काल की अन्विति एवं दृश्य जगत तथा अन्तर्जगत की विषमता के संवेदनात्मक ज्ञान परस्पर सूत्रित होते हैं।
प्रायः यह कहा जाता है कि यह कविता मुक्तिबोध के कथ्य और अभिव्यक्ति की गहनता, रहस्यमयता, दुरूहता की व्यंजक है। मुक्तिबोध के अधिकांश समीक्षकों ने ‘अँधेरे में’ कविता की व्याख्या करते हुए इसे ‘परम अभिव्यक्ति की खोज’, ‘अपनी अस्मिता या सामाजिक अस्मिता की तलाश’, ‘अपने को साधारण जन में विलय करने के मार्ग की तलाश’, ‘निम्न मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी का आत्मसंघर्ष’, अँधेरे से उजाले की यात्रा’, ‘विभाजित व्यक्तित्व व अस्तित्ववाद, रहस्यवाद, माक्र्सवाद के प्रभाव में लिखी गयी एक अर्ध-विश्रिप्त व्यक्ति की आत्मभत्र्सना’ कहा है।
नामवर सिंह ने ‘अँधेरे में’ को ‘अस्मिता की खोज’ कहा है और इसे ‘एलियनेशन (अलगाव), ‘सेल्फ एलियनेशन’ (आत्मनिर्वासन), ‘लाॅस आॅफ सेल्फ आईडेंटिटी (अस्मिता का लोप), ‘री-इफिकेशन’ (वस्तुकरण/रैकरण)“ख्1, जैसे शब्दों के सहारे समझाने की कोशिश की। इसके विपरीत चंचल चैहान ने इसे ‘सर्वहारा वर्ग में अपनी मध्यवर्गीय अस्मिता का विलय’ बताया।ख्2, विष्णु खरे को यह कविता ‘व्यक्तिगत तथा विराट स्तरों पर संघर्ष’ लगती है। शमशेर के लिए यह ‘जन इतिहास का स्वतन्त्रता पूर्व और पश्चात् का एक दहकता इस्पाती दस्तावेज है।’ख्3, डा. प्रभाकर माचवे इसे ‘गुएरनिका इन वर्स’ कहते हैं, क्योंकि उनके अनुसार इस कविता के अनेक अंश पिकासो के विश्व प्रसिद्ध चित्र ‘गुएरनिका’ जैसा ही प्रभाव डालते हैं। डा. शिवकुमार मिश्र के अनुसार “यह विशाल फैंटेसी पर आधारित प्रखर यथार्थ-बोध की कविता है। एक के्रन्द्रीय फैंटेसी और उसकी भीतरी पर्तों में प्याज के छिलके की भाँति अन्य फैंटेसियाँ।“ख्4,
उल्लेखनीय है कि मुक्तिबोध के यहाँ अँधेरा महत्वपूर्ण शब्द है। यहाँ अँधेरा जहाँ एक ओर भारत मंे ‘राम की शक्ति पूजा’ (निराला), ‘प्रलय की छाया’ (जयशंकर प्रसाद) तथा ‘असाध्य वीणा’ (अज्ञेय) में दिखाई देता है वहीं दूसरी ओर यूरोप में इलियट के ‘वेस्टलैण्ड’ में भी दिखाई देता है। निराला के यहाँ कुल मिजाज जहाँ क्लासिक की ओर है, वहीं मुक्तिबोध की आधुनिक वैचारिकता रोमांटिक आवेग से जुड़ी हुई है। वस्तुतः कविता का आरम्भ जिन्दगी के अँधेरे कमरों से होता है। इन अँधेरे कमरों में टहलते हुए किसी प्रकाशमय व्यक्तित्व का बोध होता है। अँधेरे में बंदी प्रकाशमय व्यक्तित्व जीािवत है और गतिमान है। उसका बोध तो हो रहा है किन्तु वह दिखाई नहीं पड़ता। यहाँ अँधेरा और प्रकाशमय व्यक्तित्व दोहरे अर्थ में ग्रहण किए गए हैं। यहाँ अँधेरा सामाजिक विसंगति और विरूपता का भी अँधेरा है और कवि के अवचेतन मन का भी। प्रकाशमय व्यक्तित्व सामाजिक मूल्य और रचनाधर्मिता का भी व्यक्तित्व है तथा कवि की चरम अभिव्यक्ति का भी जो उसे काम्य है।
वस्तुतः वह दौर वैचारिक संघर्ष का माना जा सकता है। उस समय जहाँ अभिव्यक्ति के साथ-साथ अस्मिता को बरकरार रखना था वहीं अन्य वैचारिक अनुभूतियों के साथ तादात्म्य रखना भी था। मुक्तिबोध उस समय की मनः स्थिति को जानते हुए नये वैचारिक प्रतिमान को स्थापित करना चाहते हैं इसलिए वह राजनीतिक उथल-पुथल तथा जनता के सामाजिक संघर्ष के बीच से उपजे हुए नये विचारों को आत्मसात करते हैं।
उस समय जनता बेचैनी अजनबियत तथा भुखमरी से गुजर रही थी। इसका कारण मुक्तिबोध फासिस्ट शक्तियों को मानते हैं। इसी फासिस्ट शक्तियों की वजह से देश में मार्शल लाॅ लगाया गया। देश में फासिस्ट हुकूमत कायम होने के बाद लगाये जाने वाले मार्शल लाॅ के संदर्भ में मुक्तिबोध कहते हैं-किसी जन क्रान्ति के दमन निमित्त यह मार्शल लाॅ है। नगर में सैनिक प्रशासन लागू है। काव्य नायक एक कमरे में पड़ा सोच विचार करता हुआ अचानक शोर-गुल सुनकर यह अनुमान लगाता है कि कोई जुलूस आ रहा है। वह गैलरी में जाकर देखता है। वातावरण भयावह होता जा रहा है। नई कविता से प्रभावित होने के कारण इसमें संडास की गंध, अकेलापन व घबराहट की स्थिति पैदा हो गयी है। वे इस जुलूस में देखते हैं कि गैस लाइट, बैण्ड पार्टी, पैदल और घुड़सवार जितना भयानक है उतना रहस्यमय भी है-
“कला बत्तू वाली काली जरीदार डेªस पहने
चमकदार बैंड-दल
अस्थिरूप यकृत-स्वरूप उदर आकृति
आॅतों के जालों से उलझे हुए,
बाजे वे दमकते हैं भयंकर
गंभीर गीत स्वप्न तरंगे
ध्वनियों के आवर्त मंडराते पथ पर“ख्5,
यह फासिस्ट हुकूमत पूँजीवाद के आर्थिक संकट के समय हुआ है। इसलिए आलोचक, विचारक, कविगण, मंत्री, उघोगपति और अपराध कर्मी पूँजीवादी व्यवस्था में षड़यन्त्र रच रहे हैं। मुक्तिबोध को उनका असली चेहरा दिखाई देता है-
“भीतर का राक्षसी स्वार्थ अब
साफ उभर आया है
छुपे हुए उद्धेश्य
यहाँ निखर आए“ख्6,
इन षड़यन्त्रकारियों के चेहरे से वे क्षुब्ध हो गये कि उन्हें जान से मार डालने के लिए उतारू हो जाते हैं-
“मारो गोली, दागो स्साले को एकदम
दुनिया की नज़रांे से हटकर
छुपे तरीके से
हम जा रहे थे कि
आधी रात अँधेरे में उसने
देख लिया हमको
व जान गया वह सब
मार डालो, उसको ख़तम करो एकदम“ख्7,
उल्लेखनीय यह है कि मुक्तिबोध कलाकार के माइग्रेसन इंस्टिस्ट (स्थानान्तर गामी प्रवृत्ति) पर जोर देते हैं। उनका मानना है कि- “मैं कलाकार की स्थानान्तर गामी प्रवृत्ति पर बहुत जोर देता हँू। आज के वैविध्यमय, उलझन से भरे रंग-बिरंगे जीवन को यदि देखना है तो अपने वैयक्तिक क्षेत्र से एक बार तो उड़कर बाहर जाना होगा।“ख्8, इसके बावजूद रामविलास शर्मा ने उन्हें विक्षिप्त मानसिकता का शिकार मानते हुए सिज़ोफ्रेनिया के रोग का शिकार माना है।
काव्य नायक इन फासिस्ट शक्तियों से काफी आतंकित है। वह वहाँ से भाग खड़ा होता है। शहर की सड़के, वहाँ का वातावरण सब उसे भयानक लगता है। वह ऊबकाई से पूर्णतः प्रभावित है। इन्हीं आपाथापी के बीच वह तिलक और गाँधी की पत्थर-मूर्तियों के निकट पहँुचता है। ये दोनों नेता भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के दो शीर्षस्थ नेता है जिनका महत्वपूर्ण योगदान है। महात्मा गाँधी ने स्वाधीनता आन्दोलन को आधार बनाकर फासिस्ट शक्तियों का विरोध किया। मुक्तिबोध का मानना है कि इस समय फासिस्ट शक्तियाँ हावी हो गयी हैं। इन शक्तियों से ये शीर्षस्थ नेता की हालत क्या होगी? तिलक के सन्दर्भ में वे कहते हैं-
“भव्य ललाट की नासिका में से
बह रहा खून न जाने कब से
लाल-लाल गरमीला रक्त टपकता
खून के धब्बांे से भरा अँगरखा
मानो कि अतिशय चिंता के कारण
मस्तक-कोष ही फूट पड़े सहसा
मस्तक-रक्त ही बह उठा नासिका में से“ख्9,
इसी तरह गाँधी की हालत है कि वे एक बोरा ओढ़े हुए हाथ-पांव समेटे सर्दी से कांप रहे हैं। वे जनता के काफी करीब हैं। वे उनकी मनोदशा से वाकिफ भी हैं। इसलिए वे काव्य-नायक को बतलाते हैं कि शक्ति नेता नहीं जनता में होती है-
“मिटृी के लांेदे में किरणीले कण-कण
गुण हैं,
जनता के गुणों से ही संभव
भावी का उद्भव“ख्10,
काव्य नायक आगे बढ़ता है तो उसे एक गली में खुला हुआ दरवाजा दिखाई देता है। अन्दर कमरे में एक व्यक्ति की हत्या कर दी गई है। वह व्यक्ति कलाकार था। उस कलाकार के माध्यम से वास्तव में अभिव्यक्ति की हत्या की गयी है। ‘अँधेरे मंे’ कविता के अन्तर्गत यह अभिव्यक्ति शब्दाभिव्यक्ति नहीं है। पागल के आत्मोबोधमय गीत के बाद जब काव्य-नायक कहता है-
‘‘व्यक्तित्व अपना ही, अपने से खोया हुआ।
वही अकस्मात उसे मिलता था रात में।।“ख्11,
स्पष्ट है यह व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति की खोज है। रचनाकार इस फाॅसिस्ट शक्तियों के बीच अभिव्यक्ति के जतरा से लड़ना चाहता है। वास्तव में यह दौर क्रान्तिकारी आन्दोलन का दौर है जिसमें आजाद भारत के संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता ख्।तज 19श् ;1द्ध ;।द्ध, मिली है, परन्तु यह स्वतंत्रता दस्तावेजी (कागजी) स्वतंत्रता है। मुक्तिबोध इस कागजी स्वतंत्रता के विरोधी हैं, उनका मानना है-
‘‘अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे
उठाने ही होंगे
तोड़ने होंगे मठ और गढ़ सब’’ख्12,
इस तरह वे शाब्दिक अभिव्यक्ति की अपेक्षा कर्म की अभिव्यक्ति पर बल देते हैं।
फाॅसिस्ट हुकूमत ने जन-क्रान्ति को दबाने के लिए मार्शल ला लागू किया था लेकिन क्रान्ति अंततः दबती नहीं है और वह फूट पड़ती है। यह क्रान्ति स्वतः स्फूर्त नहीं है। उसके लिए काव्य नायक को जब कोई आदमी मिलता है तो क्रान्ति से संबंधित पर्चा थमा जाता है तो वह महसूस करता है कि-
‘‘पर्चा पढ़ते हुए उड़ता हूँ हवा में
चक्रवात गतियों से घूमता हूँ नभ पर
जमीन पर एक साथ
सर्वत्र सचेत उपस्थित
प्रत्येक स्थान पर लगा दूँ मैं काम में
प्रत्येक चैराहे, दुराहे व राहों के मोड़ पर
सड़क पर खड़ा हूँ,
मानता हूँ, मानता हूँ, मानवता अड़ा हूँ।’’ख्13,
क्रान्ति के समय पूँजीवादी चिन्तकों, कवियों और कलाकारों के आचरण का मुक्तिबोध ने खास तौर से उल्लेख किया है। ये सब चुप हैं और क्रान्ति को खाम खयाली मान रहे हैं। रक्तपायी वर्ग से नाभि-नाल बद्ध ये लोग अपनी सुविधाओं का उपयोग करते हैं और समस्याओं को गहराई से नहीं समझते। क्रान्ति का विरोध करने में पूँजीवादी पत्रकारों की विशेष भूमिका होती है। ये जन विरोधी संवाद और टिप्पणियों को गढ़ने में लगे रहते हैं।
काव्य नायक और तारों में टहलते और वहीं से पृथ्वी को देखते ‘तोलस्तोय’ दीख जाते हैं। ‘तोलस्तोय’ मुक्तिबोध के लिए मानवतावाद के सर्वश्रेष्ठ प्रतीक हैं। आगे वे तोलस्तोय व्यक्ति के लिए लिखते हैं-
‘‘मेरे भीतरी धागे का आखिरी छोर वह
अनलिखे मेरे उपन्यास का
केन्द्रीय संवेदन’’ख्14,
यह स्वप्नगाथा मध्यवर्ग के जीवन से भी संबंधित है। मध्यवर्ग की यह स्थिति आत्मभत्र्सना की स्थिति है जो परिस्थिति के दबाव में अपने सारे आदर्शों और सिद्धान्तों को छोड़कर पेट के लिए अपनी आत्मा को बेचता रहा। अपने सुख-दुःख को ही महत्व देता हुआ शेष विश्व से अलग आत्म-केन्द्रित बना रहा और गलत कार्यों में संलिप्त रहा। लेकिन जनता की करुणाजनक स्थिति ने उसके भीतर संवेदना का संचार नहीं किया। ‘मर गया देश का मतलब’ वाली स्थिति बन गयी है। मध्यवर्ग के इस जीवन स्थिति के संदर्भ में वे लिखते हैं-
‘‘ओ मेरे आदर्शवादी मन
ओ मेरे सिद्धान्तवादी मन
अब तक क्या किया
जीवन क्या जिया?’’ख्15,
मुक्तिबोध का समय बढ़ती हुई तकनीकि व्यवस्थाओं का दौर है। इसी बढ़ती हुई बौद्धिक क्षमता या तकनीक के कारण वैज्ञानिक बड़े-बड़े हथियार यहाँ तक कि अणु बम, परमाणु बम बना लिए हैं। मुक्तिबोध के समय तक परमाणु बम बन चुका था और वह उससे उत्पन्न हिंसात्मक रवैये को देख चुके हैं। उनके समय जापान के हिरोशिमा व नागासाकी में अमेरिका द्वारा परमाणु बम गिराये गये। इसीलिए वहाँ की जनता आज भी विकलांग मानसिकता तथा विक्षिप्त शरीर वाले लोग पैदा हो रहे हैं। वे रेडियो-ऐक्टिव तत्वों से परिचित थे। कुल मिलाकर वे जनता के विरोध में बनाये गये हिंसात्मक रवैये व हथियार के विरोध में थे।
अन्ततः काव्यनायक फासिस्ट शक्तियों से लड़ने का निश्चय कर लेता है। तिलक की दशा उसे संकल्प देती है। वह अपने मध्यमवर्गीय निजत्व से छुटकारा पाने का हठ करता है। उसके बाद उसकी मुलाकात महात्मा गांाधी से होती है। वह उसे यह सूत्र बताते हैं कि वह आसमान से टपके हुए नेता नहीं हैं, जनता भविष्य निर्मात्री है। वह काफी डरा हुआ है। इसलिए वह अपने कंधे से जिस भारतीय जन-शिशु को चिपका रखा है। वह अचानक रो पड़ता है। शिशु के रोने से वह और अधिक विक्षिप्त हो जाता है। फासिस्ट शक्तियों के खिलाफ उसकी आवाज और बुलंद हो जाती है लेकिन जैसे वह आगे बढ़ता है उसके कंधे से शिशु गायब हो जाता है वहाँ सिर्फ सूरजमुखी फूल के गुच्छे बचते हैं। बाद में फूल भी गायब हो जाते हैं और उसके स्थान पर रायफल आ जाती है। यह मुख्यतः जनता के स्थिति सापेक्ष है। वह कभी फूल-सी हो जाती है तो कभी हाथ में रायफल लेकर क्रान्ति कर अपने अधिकारों के लिए लड़ने लगते हैं।
जब काव्य-नायक गिरफ्तार हो जाता है तो उसकी पिटाई होती है। उसकी पिटाई होने से उसके संकल्प शिथिल नहीं हो पाते। वह और भी दृढ़ हो जाती है-
‘‘और तब दिक्काल दूरियाँ
अपने ही देश के नक्शे सी टँगी हुई
रंगी हुई लगती
स्वप्नों की कोमल किरनों का पानी
धनीभूत संघनित द्युतिमान
शिलाओं में परिणत
ये सब दृढ़ीभूत कर्म-शिलाएँ है
जिनसे कि स्वप्नों की मूर्ति बनेगी।’’ख्16,
कुछ समय के पश्चात् वह स्वप्न से जाग जाता है। वह पहले से ज्यादा परेशान हो जाता है। अकेलापन उसे और घेर लेता है। यह अकेलापन अथवा अँधेरा व्यक्ति के अजनबीयत (एलिनियेशन) की पहचान है। उल्लेखनीय यह है कि यह स्वप्न भंग की स्थिति एवं आस्था पर आधारित है जो आजाद भारत के मध्यवर्गीय परिवार ने अपनाया था-
‘‘मानों कि कल रात किसी अनपेक्षित क्षण में ही सहसा
प्रेम कर लिया हो मनोहर मुख से
जीवन भर के लिये
मानों कि उस क्षण
अतिशय मृदु किन्हीं बाहों ने आकर
कस लिया था मुझको
उस स्वप्न, स्पर्श की, चुम्बन घटना की याद आ रही है’’ख्17,
वस्तुतः मुक्तिबोध स्वप्न कथा के माध्यम से समकालीन सामाजिक व्यवस्था की सच्चाई की खोज करते हैं। यह सच्चाई अभिव्यक्ति, अस्मिता तथा मानवता के सहारे अतियथार्थ को स्थापित करती है। काव्य-नायक के साथ-साथ रक्तस्नात पुरुष दो अलग-अलग व्यक्ति न होकर एक ही अन्तः अभिव्यक्ति का उद्घाटन है जो परिस्थितिपरक मानसिकता का परिणाम है। मुक्तिबोध मनुष्य के विकास संघर्ष तथा उसके मनः स्थिति का विवेचनात्मक दस्तावेज इस स्वप्नकथा के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं।
संदर्भ-सूची
ख्1, ‘‘कविता के नए प्रतिमान’’- डाॅ. नामवर सिंह, पृष्ठ 245, प्रकाशक- राजकमल प्रकाशन, 2014
ख्2, ‘‘मुक्तिबोध प्रतिबद्ध कला के प्रतीक’’- चंचल चैहान, पृष्ठ 107
ख्3, ‘अँधेरे में’ का महत्व- सं. राजेन्द्र कुमार, पृष्ठ 90, प्रकाशक- सुमित प्रकाशन, इलाहाबाद
ख्4, ‘‘आधुनिक कविता और युग संदर्भ’’- डाॅ. शिवकुमार मिश्र, पृष्ठ 215, प्रकाशक- स्वराज प्रकाशन, दिल्ली
ख्5, ‘‘मुक्तिबोध: प्रतिनिधि कविताएँ’’- मुक्तिबोध, पृष्ठ 137, प्रकाशक- राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
ख्6, वही, पृष्ठ 120
ख्7, वही, पृष्ठ 138
ख्8, ‘‘निराला और मुक्तिबोध की चार लम्बी कविताएँ’’- नंद किशोर नवल, प्रकाशक- राधाकृष्णन प्रकाशन, नई दिल्ली, 2011, पृष्ठ 147
ख्9, वही, पृष्ठ 148
ख्10, ‘‘मुक्तिबोध: प्रतिनिधि कविताएँ’’- मुक्तिबोध, पृष्ठ
ख्11, वही, पृष्ठ 135
ख्12, वही, पृष्ठ 161
ख्13, वही, पृष्ठ 164
ख्14, वही, पृष्ठ 155
ख्15, वही, पृष्ठ 141
ख्16, वही, पृष्ठ 164
ख्17, वही, पृष्ठ 169
ज्ञानेन्द्र प्रताप सिंह
शोधार्थी -हिंदी विभाग ,दिल्ली विश्वविद्यालय
पता – सी -195-196 द्वितीय तल, गाँधी विहार , दिल्ली
पिन न.– 110009, मो. न.- 8882898773
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