स्कन्दगुप्तः
राष्ट्रीय चेतना का जीवन्त दस्तावेज
ज्ञानेन्द्र प्रताप सिंह
शोधार्थी -हिंदी विभाग ,दिल्ली विश्वविद्यालय
पता – सी -195-196 द्वितीय तल, गाँधी विहार , दिल्ली
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साहित्य मानवीय
सृष्टि है, अतः वह सोद्देश्य और मनुष्यता के प्रति उत्तरदायी होती है।
जयशंकर प्रसाद की रचनाओं का अध्ययन करने पर हम पाते हैं कि उनकी अभिरूचि इतिहास के
प्रति बहुत गहरी है। उनकी प्रायः सभी रचनाएँ या तो ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित हैं
या पौराणिक आख्यानों पर अथवा ऐतिहासिक कल्पना पर। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि
प्रसाद वर्तमान से पलायन या अतीत के प्रति रोमांस के कारण इतिहास को अपनाते हैं,
बल्कि इतिहास को अपनाने के पीछे प्रसाद की रचनात्मकता की
खास विशेषता है। वे इतिहास के माध्यम से तत्कालीन समस्याओं को समझने एवं उसे हल
करने का प्रयास करते हैं। प्रसाद की स्पष्ट मान्यता है कि- ‘‘मेरी इच्छा भारतीय इतिहास के अप्रकाशित अंश से उन प्रकाण्ड
घटनाओं का दिग्दर्शन कराने की है, जिन्होंने हमारी वर्तमान स्थिति को बनाने का बहुत कुछ
प्रयत्न किया है।’’[1]
आचार्य शुक्ल ने भी लिखा है- ‘‘... यद्यपि प्रसाद के नाटक ऐतिहासिक हैं, पर उनमें आधुनिक आदर्शों और भावनाओं का आभास इधर-उधर बिखरा मिलता है।’’[2]
प्रसाद ने
इतिहास को सांस्कृतिक दृष्टि से देखा है न कि आर्थिक या राजनीति तत्वों को केन्द्र
में रखकर। वे मार्क्सवादियों के इस राय से सहमत नहीं हैं कि आर्थिक तत्व ही इतिहास
की प्रेरक शक्ति होती है। उनकी राय में सांस्कृतिक परंपराएँ,
धर्म जैसी संस्थाएँ तथा सांस्कृतिक स्थितियाँ इतिहास के
परिवर्तन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं इसलिए उनकी ज्यादा रूचि ऐसे
सांस्कृतिक मूल्यों में हैं जिसे इतिहास में से खोजकर वर्तमान समाज के सामने रखा
जा सके। उदाहरण के लिए स्कन्दगुप्त नाटक में भीमवर्मा और बंधुवर्मा का साम्राज्य
त्याग देने का निर्णय या फिर देवसेना का विवाह न करने का निर्णय कुछ ऐसे ही उदाहरण
हैं। देश-हित में अपना राज्याधिकार त्याग कर बंधुवर्मा
एक अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत करता है। वह कहता है- ‘‘साम्राज्य
की सुव्यवस्था के लिए, आर्य-राष्ट्र के
त्राण के लिए, युवराज उज्जयिनी में रहें, इसी में सबका कल्याण है।’’[3]
और वह मालव राज्य स्कंदगुप्त के चरणों पर न्यौछावर कर देता है। पत्नी
जयमाला जब इसका विरोध करती है तब वह कहता है- ‘‘... जो केवल
खड्ग का अवलम्ब रखने वाले सैनिक हैं उन्हें विलास की सामग्रियों का लोभ नहीं रहता है।’’[4]
स्कन्दगुप्त के
कथानक का ढाँचा ऐतिहासिक होने के पीछे एक कारण अंग्रेजी पराधीनता भी ठहरती है।
स्वाधीनता संग्राम के दौर में रचनाकारों के पास अभिव्यक्ति की ऐसी व्यापक
स्वाधीनता नहीं थी कि वे ब्रिटिश हुकूमत के प्रति अपने विरोध को सीधे शब्दों में
व्यक्त कर सकें। इसलिए भारतेन्दु से लेकर प्रसाद तक अधिकांश लेखक प्रतीकों के
ढाँचे में राष्ट्रीय चेतना व्यक्त करते हुए नजर आते हैं। स्कन्दगुप्त इतिहास का वह
नायक है जिसने विदेशी आक्रांताओं को पराजित किया था,
उसका नायक होना सीधे-सीधे राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम की
प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति है। ब्रिटिश सत्ता का स्थान शक और हूण आक्रमणकारियों के
लिए है,
हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिकता के लिए बौद्ध-ब्राह्मण मतभेद
को माध्यम बनाया गया है जबकि बंधुवर्मा और भीमवर्मा के त्याग के माध्यम से विभिन्न
क्षेत्रवादी ताकतों को संदेश दिया गया है कि देश के व्यापक हित में संकीर्ण हितों
का त्याग करें। इस नजरिए से देखने पर यह समझना मुश्किल नहीं रह जाता कि प्रसाद कि
नजर गुप्तकाल पर नहीं , बल्कि 1928 के भारत पर है।
स्कंदगुप्त 1928 ई. में लिखा गया नाटक है। इस समय कांग्रेस के भीतर ‘पूर्ण स्वाधीनता’ की सुगबुगाहट होने लगी थी और राष्ट्रीय-आंदोलन के राजनीतिक
मंच पर महात्मा गाँधी की मुख्य भूमिका थी। वे ही राष्ट्रीय आन्दोलन को एक
दिशा-निर्देश दे रहे थे। साथ ही प्रथम विश्वयुद्ध के बाद भारत की छवि जहाँ वैश्विक
हुई वहीं अन्य देशों के संपर्क में आने से भारत ने अपनी राष्ट्रीय अस्मिता की तलाश
व्यापक ढंग से की। इसके फलस्वरूप भारत ने अपनी कला-संस्कृति और नवीन जीवन-दृष्टि का निर्माण
अपने ढंग से किया है। यह दौर भारत को स्वाधीन कराने की राष्ट्रीय चेतना का दौर था।
राजनीति में बहुत अधिक उतार-चढ़ाव आने पर भी हमारी राष्ट्रीय चेतना
गतिशील रही है। जिसके सम्बन्ध में आचार्य नंददुलारे वाजपेयी जी का कथन उल्लेखनीय है
- ''इस सर्वतोव्यापी सक्रिय राष्ट्रीयता का प्रभाव हमारे उस
समय के साहित्य पर अनेक रूपों में,
अनेक प्रकार से पड़ा। हम तो यहाँ तक कहना चाहेंगे कि इस व्यापक राष्ट्रीय
जागृति की हलचल में हमारा साहित्य पनपा और फूला-फला है।’’[5]
नाटक का प्रत्येक अंक राष्ट्रीयता एवं स्वदेश प्रेम की भावना
से भरा है। द्वितीय अंक में विदेशी आक्रान्ताओं से देश की रक्षा के प्रयास में गोविन्दगुप्त, जातीयता की भावनाओं को उद्बोधित करते हुए कहते
हैं, ‘‘आज आर्य जाति का प्रत्येक बच्चा सैनिक है, सैनिक छोड़कर और कुछ नहीं।’’[6]
‘‘सम्राट होने के लिए नहीं, युद्ध में सेनानी बनने
के लिए ।’’[7]
यहाँ राष्ट्रीय भावनाएँ इतिहास एवं वर्तमान दोनों के संदर्भों में सार्थकता
प्रस्तुत करती हैं। एक ओर स्कन्दगुप्त के समक्ष राष्ट्रोद्धार की समस्या है,
दूसरी ओर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की प्रबल भूमिका है। इसी अंक में
जब स्कन्दगुप्त को सिंहासन पर बैठाया जाता है तब स्कन्दगुप्त कहता है- ‘‘आर्य!... और आर्य राष्ट्र की रक्षा में सर्वस्व अर्पण
कर सकूं, आप लोग इसके लिए भगवान से प्रार्थना कीजिए और आशीर्वाद
दीजिए कि स्कन्दगुप्त अपने कर्तव्य से, स्वदेश-सेवा से, कभी विचलित न हो।’’[8]
गोविन्दगुप्त जब बन्धुवर्मा को कहते हैं कि इस वृद्ध में साम्राज्य के
महाबलाधिकृत होने की क्षमता नहीं, तुम्हीं इसके लिए उपयुक्त हो।
तब बंधुवर्मा कहते हैं- ‘‘अभी नहीं आर्य! आपके चरणों में बैठकर यह बालक स्वदेश-सेवा की शिक्षा
ग्रहण करेगा। मालव का राज-कुटुम्ब, एक-एक बच्चा, आर्य-जाति के कल्याण के लिए जीवन उत्सर्ग करने को प्रस्तुत है।’’[9]
नाटक में बड़े से
लेकर छोटे-छोटे संवादों में भी राष्ट्र उत्थान, स्वदेश प्रेम, देश की मंगल कामना निहित है- कुमारगुप्त कहता है - ‘‘आर्य नारी सती ! तुम धन्य हो। इसी गौरव से तुम्हारे देश का सिर ऊँचा होगा।’’[10]
तीसरे अंक में बंधुवर्मा जब सैनिकों को कहते हैं- ‘‘भारतीय दुर्जेयवीर हैं। समझ लो- आज के युद्ध में प्रत्यावर्तन
नहीं है। जिसे लौटना हो अभी से लौट जाये।"[11]
राष्ट्रीय चेतना की बात करते हुए यहाँ विचारणीय है कि- आजादी
के आंदोलन में सबसे बड़ी बाधा भारतीयों का हीनताबोध थी। राष्ट्रीयता की अनिवार्य
शर्त है राष्ट्र के प्रति गौरव की भावना का होना, और जब तक राष्ट्र के प्रति गौरव का भाव नहीं होगा, राष्ट्रीयता की भावना नहीं आ सकती। अंग्रेजों के
श्रेष्ठताबोध के बरक्श स्कंदगुप्त नाटक में प्रसाद भारतीय इतिहास के स्वर्णिम
काल को स्थापित करते हैं यहाँ प्रसाद का
उद्देश्य भारतीयों के मन में देश के प्रति गौरव का भाव जगाना था। स्कंदगुप्त नाटक
में राष्ट्र के प्रति यह गौरव भाव कई स्थानों व्यक्त हुआ है-
‘‘वीरो! हिमालय के आंगन में उसे प्रथम किरणों का दे उपहार।
उषा ने हँस अभिनन्दन किया और पहनाया हीरक हार।
जगे हम, लगे जगाने विश्व लोक में फैला फिर आलोक।
व्योम-तम- पुंज हुआ तब नष्ट, अखिल संसृति हो उठी अशोक।
× × ×
धर्म का ले-लेकर जो नाम हुआ करती बलि, कर दी बन्द।
हमीं ने दिया शन्ति-संदेश, सुखी होते देकर आनन्द।
विजय केवल लोहे की नहीं, धर्म की रही,
धरा का धूम।
दरअसल,
तत्कालीन समय में बुद्धिजीवियों का एक ऐसा वर्ग भी था, जो श्रेष्ठता के सारे पैमाने पश्चिमी भाव-भूमि से खोजने
में लगा रहता था एवं यह दुष्प्रचार भी हो रहा था कि भारतीय लोग अर्द्ध सभ्य हैं तथा
सांस्कृतिक विकास की दृष्टि से काफी हीन और पिछड़े हुए हैं। चूँकि राष्ट्रीयता की
भावना बिना हीनता पर चोट किए उत्पन्न नहीं हो सकती इसीलिए प्रसाद ने ऐसे चरित्रों
पर चोट की है जो उधार की संस्कृति के पीछे अपने राष्ट्र के महत्व को भूल जाते हैं । सैनिक,भटार्क से कहता है-
‘‘यवनों से उधार
ली हुई सभ्यता नाम की विलासिता के पीछे आर्य-जाति इसी तरह पड़ी है,
जैस कुलवधू को
छोड़कर कोई नागरिक वेश्या के चरणों में। देश पर बर्बर हूणों की चढ़ाई और तिस पर भी
यह निर्लज्ज आमोद!’’[13]
जब देश के निवासियों में हीनता की भावना भर जाती है तो देश का आत्मविश्वास भी
डगमगा जाता है, जबकि जीवन या समाज की कोई भी लड़ाई बिना आत्मविश्वास के
नहीं जीती जा सकती। प्रसाद के समय का भारत विषम सामाजिक-राजनीतिक संकट का काल था।
ऐसे समय में भारतीयों के मन में आत्मविश्वास भरने के लिए प्रसाद ने विदेशी पात्रों
द्वारा भारतीय संस्कृति की प्रशंसा करवायी है। श्रीलंका का धातुसेन कहता है-
‘‘भारत समग्र विश्व का है,
और संपूर्ण
वसुंधरा इसके प्रेमपाश में आबद्ध है। अनादिकाल से ज्ञान की,
मानवता की
ज्योति यह विकीर्ण कर रहा है। वसुन्धरा का हृदय-भारत-किस मूर्ख को प्यारा नहीं है?’’[14]
प्रसाद के
नाटकों में राष्ट्र के प्रति त्याग और बलिदान की भावना दिखाई देती है यह भावना
परंपराशील सांस्कृतिक प्रेरकों और आदर्शों से ली गई है। प्रसाद के नाटक ऐसे हैं
जिसमें राष्ट्र अपने सम्राट को स्वाधीनता के लिए सेनानी बनने का आवाहन (पुकारना) करता है,
जिसमें वीर विदेशी आक्रमण का सामना करते हैं और स्कंदगुप्त
नाटक के बंधुवर्मा की तरह प्राणों की बलिदान करते हैं।
जिससे साम्प्रदायिकता जैसी विभाजक शक्तियों पर राष्ट्रीय एकता की प्रतिष्ठा की
जाती है। ‘‘भीम ! क्षत्रियों का कर्तव्य है- आत्र-त्राण परायण होना,
विपद् का
हुँसते हुए
आलिंगन करना, विभीषिकाओं की मुस्कराकर अवहेलना करना, और-विपन्नों के लिए, अपने धर्म के लिए, देश के लिए प्राण देना!’’[15]
बंधुवर्मा की तरह
ही देवसेना और भीमवर्मा भी अपने राज्य को देश पर न्यौछावर करने की भावना रखते हैं।
समस्त देश के कल्याण के लिए वे स्वार्थों की बलि देने के लिए तैयार है। भीमवर्मा
कहता है- ''समस्त देश के कल्याण के
लिए-एक कुटुंब की भी नहीं,
उसके क्षुद्र स्वार्थों की बलि होने दो भाभी !...
देखो-हमारा आर्यावर्त विपन्न है, यदि हम मर-मिटकर भी इसकी कुछ सेवा कर सकें...''[16]
राष्ट्र के
प्रति त्याग की भावना का मार्मिक रूप देवसेना के प्रेम त्याग के संदर्भ में
चित्रित हुआ है जब उसे लगता है कि स्कंदगुप्त प्रेम में अकर्मण्य होने लगा है तो
वह प्रेम को त्याग देने में जरा भी संकोच नहीं करती है-
‘‘मालव का महत्व तो रहेगा ही; परन्तु उसका उद्देश्य
भी सफल होना चाहिए। आपको अकर्मण्य बनाने के लिए देवसेना
जीवित न रहेगी।’’[17]
त्याग की भावना
नाटक के पंचम अंक के पंचम दृश्य के इस गीत में भी दिखाई पड़ता है-
‘‘वही है रक्त,
वही है देश, वही साहस है,
वैसा ज्ञान।
वही है
शान्ति,
वही शक्ति, वही हम दिव्य आर्य-सन्तान।
जियें
तो सदा उसी के लिए,
यही अभिमान रहे, यह हर्ष।
राष्ट्रीय
चेतना के लिए जरूरी है कि- जहाँ एक तरफ राष्ट्र भक्तों का मान-सम्मान हो, वहीं
दूसरी तरफ देश-द्रोहियों के प्रति घृणा का भाव हो। स्कन्दगुप्त नाटक में इन दोनों
स्थितियों को प्रसाद जी ने बखूबी दर्शाया है। राष्ट्र भक्त पात्रों में भीमवर्मा,
बन्धुवर्मा, देवसेना, स्कंदगुप्त, पर्णदत्त तथा कमला आदि है जबकि राष्ट्र द्रोही
पात्रों में भटार्क, पुरगुप्त, अनंतदेवी आदि है। पूरे नाटक में देश भक्त चरित्रों का गुणगान
किया गया है जबकि राष्ट्र-द्रोही चरित्रों के प्रति वितृष्णा का भाव है। कमला भटार्क
की माता है। बेशक वह स्कंदगुप्त नाटक की गौण पात्र है किन्तु अपने त्याग और उदारता
के आदर्श में किसी भी मुख्य पात्र से कम नहीं है। यह उसका दुर्भाग्य है कि वह भटार्क
जैसे नीच देशद्रोही की माँ है। वह अपना स्वदेश प्रेम अपने कुचक्री, कृतघ्न, राष्ट्रद्रोही
पुत्र के अमानवीय दुष्कृत्यों का तीव्र विरोध करके दर्शाती है। भटार्क को अपना पुत्र
कहने में भी उसे लज्जा का अनुभव होता है। वह
कहती है- ‘‘भटार्क! तेरी माँ को एक ही
आशा थी कि पुत्र देश सेवक होगा, मलेच्छों से पद-दलित भारत-भूमि का उद्धार करके मेरा कलंक धो डालेगा,
मेरा सिर ऊँचा होगा। परन्तु हाय!’’[19]
‘‘मुझे तुझको पुत्र कहने में संकोच होता है,
लज्जा से गड़ी
जा रही हूँ! जिस जननी की संतान- जिसका अभागा पुत्र-ऐसा देशद्रोही हो,
उसको क्या
मुँह दिखाना चाहिए?’’[20]
भारत एक बहु
सांस्कृतिक राष्ट्र है जहाँ सभ्यता के आरम्भिक दिनों से ही विभिन्न संस्कृतियों को
फलने-फूलने का अवसर मिला, इसलिए भारत की राष्ट्रीय आधारशिला अनेकता में एकता है। किन्तु सांस्कृतिक विविधता अपने साथ कुछ जटिलताएँ भी लेकर आती है इसमें
सबसे प्रमुख जटिलता है सांप्रदायिकता। सांप्रदायिकता राष्ट्र के एकीकरण में सबसे
बड़ी बाधक है। आजादी के आन्दोलन में भारतवर्ष के राष्ट्रीय नेताओं को इस बात का भान
था कि बिना सांप्रदायिक एवं जातिगत सद्भाव के भारत जैसे बहुलतावादी देश को आजादी
हासिल नहीं हो सकती। स्कंदगुप्त नाटक में भी प्रसाद ने भी सांप्रदायिकता का
पुरुजोर विरोध किया है। धातुसेन कहता है- ‘‘अहंकारमूलक आत्मवाद का खंडन करके गौतम ने विश्वासवाद को
नष्ट नहीं किया। यदि वैसा करते तो इतनी करूणा की क्या आवश्यकता थी?’’[21]
इसी प्रकार,
प्रख्यातकीर्ति का कथन है- ‘‘हम लोग एक ही मूल धर्म की दो शाखाएँ हैं। आओ,
हम दोनों के
विचार के फूलों से दुःख-दग्ध मानवों का कठोर पथ कोमल करें।।’’[22]
स्कंदगुप्त
नाटक में प्रसाद जी ने राष्ट्र के प्रति सिर्फ खोखली बातें ही नहीं की हैं,
बल्कि गुलामी के
दिनों में देश किन-किन विकट परिस्थितियों का सामना कर रहा था इसका भी उल्लेख किया
है। स्कंदगुप्त देश की दुर्दशा को देखकर करुण भाव से भर जाता है और कहता है-
‘‘आर्य साम्राज्य का नाश इन्हीं आँखों से देखना था। हृदय काँप
उठता है, देशाभिमान गरजने लगता है। मेरा स्वत्व न हो,
मुझे अधिकार
की आवश्यकता नहीं।’’[23]
वस्तुतः
राष्ट्रीयता एक प्रकार की आत्मसजगता की माँग करती है जिसमें सिर्फ स्वर्णिम इतिहास
का गान ही न हो बल्कि वर्तमान समय के कटु यथार्थ से भी निरंतर सामना होना जरूरी होता है।
स्कंदगुप्त नाटक के चरित्र देश की वर्तमान दुर्दशा के प्रति सजग है। देवसेना
द्वारा गाया निम्न गीत इस बात का प्रमाण है-
‘‘देश की दुर्दशा निहारोगे, डूबते को कभी उबारोगे,
हारते ही रहे, न है कुछ अब,
दाँव पर आपको न हारोगे,
कुछ करोगे कि बस सदा रोकर, दीन हो दैव को पुकारोगे,
इसी तरह
मातृगुप्त भी भारत की दुर्दशा से खिन्न होकर ईश्वर से पूँछने लगता है-
‘‘उतारोगे अब कब भू-भार
बार-बार क्यों कह रक्खा था लूँगा मैं अवतार।
उमड़ रहा है इस भूतल पर दुख का पारावार
× × ×
सावधान हो अब तुम
जानों मैं तो चुका पुकार’’[25]
उल्लेखनीय है कि
प्रसाद ने काल्पनिक राष्ट्रीयता का विरोध भी किया है, जिसमें भूखे
पेट राष्ट्र पर मरने की बात की जाती है। प्रसाद की कल्पना एक ऐसे राष्ट्र की है जहाँ
वर्ग समानता हो तथा प्रत्येक को भय-भूख से मुक्ति मिले। इस धारणा
पर तत्कालीन समाजवादी आन्दोलन का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है जिसे प्रसाद ने सहर्ष स्वीकारा
है। प्रसाद के इस धारणा पर तत्कालीन समाजवादी आंदोलन का प्रभाव
दिखता है। पर्णदत्त कहता है- ‘‘अन्न पर स्वत्व है भूखों का और धन पर स्वत्व है देशवासियों का। प्रकृति ने उन्हें हमारे लिए-हम भूखों के लिए रख छोड़ा है। वह थाती है, उसे लौटाने में इतनी कुटिलता! विलास के लिए उनके पास पुष्कल धन है, और दरिद्रों के लिए नहीं?’’[26]
इस प्रकार प्रसाद
ने स्कन्दगुप्त में राष्ट्रीय चेतना के प्रत्येक पहलू को अत्यंत सूक्ष्मता से दर्शाया
है | वह हमें प्राचीन भारत के आपसी कलह के संकट से सबक लेकर अग्रेजों की ‘फूट डालो
और राज करो’ की नीति से बचने की सलाह देते हैं,
क्योंकि भारत एक विविधतापूर्ण
देश है,जहाँ विभिन्न धर्म समुदाय के लोग एक साथ रहते हैं,
जिनकी अपनी भौगोलिक
एवं सांस्कृतिक विशेषतायें अलग -अलग देखने को मिलती हैं |
इसलिए प्रसाद यह कहते
हैं कि राष्ट्रीय महत्व के प्रत्येक विषय पर हमें अपने व्यक्तिगत क्षुद्र स्वार्थों
को त्याग कर एकजुट होकर देश की रक्षा के लिए
तत्पर खड़े रहना चाहिए, क्योंकि स्वतंत्रता एवं स्वाधीनता मानव के सर्वोच्च मूल्य हैं
इनकी रक्षा के लिए अगर हमें प्राणों का बलिदान भी करना पड़े तो पीछे ना हटते हुए हमें
ख़ुशी से अपने प्राणों को न्यौछावर करना चाहिए |
संदर्भ-ग्रंथ
·
‘‘स्कन्दगुप्त’’- जयशंकर प्रसाद, प्रकाशन संस्थान, दिल्ली
·
‘‘जयशंकर प्रसाद’’- आचार्य नंददुलारे वाजपेयी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद
·
‘‘हिंदी साहित्य का इतिहास’’- आ. रामचन्द्र शुक्ल, वाणी प्रकाशन, दिल्ली
·
‘‘आधुनिक साहित्य’’- आचार्य नंददुलारे वाजपेयी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद